Tuesday, October 9, 2007

"संस्कारों की आपा धापी"


जीवन की आपाधापी तो आपने सुनी होगी लेकिन एक घटना ने मुझे पूरे महानगरीय व्यवस्था के आपाधापी में संस्कारों को हासिए पर चढ़ा और पिसता दिखा। यह कोई नया अनुभव नहीं था यह। परंतु इतना पुराना भी नहीं कि इसके अंकुर गाँव में फूट पड़े थे। गावों की गलियाँ या चाणक्य की भाषा में कहें तो वीथियो में तो संस्कारों की लहलहाती पौध साथ लिए चला करते थे।

वर्षों पुर्व इसकी पहली पीड़ा हुई DTC के बसों पर जहाँ इसकी रेखायें किस्तों में धूमिल पड़ती चली गई। बुजुर्गों के अवमानना हुए। पहले एक साल तो संस्कारों का गठर ढ़ोते रहे और एक महज़ सीट से खड़े हो इसकी झंडाबदारी करते रहे। लेकिन एक दिन मन ने करवट ली और पहली किश्त अदा की। देखा की लंबी दूरी चलनी है - सीट छोड़नी होगी। आनन-फानन में शुतुरमुर्ग की तरह आँख बंद कर सोने का नाटक किया। लगा उसने अपनी रक्षा कर ली और सीट की भी।

पाँच सालों के बाद उसका कायाकल्प हो चुका था। शहरी व्यवस्था से रूबरू हो उसने नयी समाजिकता, नया अर्थशास्त्र सीख अब वह "स्मार्ट" हो चुका था। अब वह गाँव की वीथियो में संस्कार का बोझ ढ़ोता अबोध नहीं रहा था। वह अब सारे निर्णय लेने से पहले तौलता है, जिसमें उसे अपना और केवल अपना फ़ायदा दिखता है वही करता है और अनायास कभी-कभी इसका दम्भ भी भर जाता है और कह उठता है - "बॉस बहुत ठगा गया हूं, स्टार्ट में जब नया-नया गिरा था दिल्ली में - अब सब समझ में आ गया है।

माफ़ कीजिएगा विषयांतर हो गया था। परंतु मसला कुछ इसी तरह का है जिससे मैं रूबरू हुआ चंद दिनों पुर्व - देश के सबसे बड़े अस्पताल का न्यूरोलोजी वार्ड - अजीब सी मारा मारी। डाक्टर के आने से पहले सब लोगों ने अपने मरीज़ के साथ बैठने की सीटों पर कब्ज़ा कर लिया था। जो देर से आ रहे थे खड़े थे। कई छोटे बच्चे थे जो मानसिक तौर पर अस्वस्थ थे। अजी़ब सी जिंदगी हवा में तैर रही थी। कोई उन्हें सीट देने को तैयार नहीं था। सुविधाभोगी चरित्र हावी था चारों तरफ। इसी बीच एक ऐसे मरीज़ का प्रवेश होता है, जिसका वर्णन करना मुश्किल है, अनुभव कर सकते हैं आप। वह चल नहीं सकता था, जिंदा लाश की तरह दो कंधों पर घिसटा चला आ रहा था। सारे लोग जो 70-80 के आसपास जरूर होंगे सिहर गए। दो साल से उसका दिमाग काम करना बंद कर चुका था। निर्वाक एक दिशा को निहार रहा था। कभी-कभी एक हल्की हँसी फेंक जाता - जिधर देखता था। हर आदमी अपनी-अपनी कल्पनाओं में इतना डरा हुआ था कि सबके चहरे स्याह से लग रहे थे।

तब मैंने देखा सुविधाभोगियों, संस्कारविहीन, अपनी-अपनी सोचने वाले एक अंजान से डर से एक-एक कर उठने लगे। सभी उसे जगह देने को तैयार थे या यूं कहें उससे दूर बैठने के जद्दोजहद में लगे हुए थे। मन कचोट सा गया। मालूम नहीं चला कि बस पर छोड़े गए "संस्कार" और न्यूरोलोजी वार्ड में हावी हुए डर के बीच क्या संबंध था। शायद यही "यक्ष प्रश्न" है जो आपको सालता है और "मैं" और "वह" का भेद मिटाने की कहानी लिखता है!